हमारा परम धर्म है। परोपकारसम्बन्धी विचारों को इसने आदमियों के दिल से दूर कर दिया है। दूसरों के फायदे का लोग वहीं तक खयाल करते हैं जहां तक उनके स्वार्थ की हानि नहीं होती। क्रिश्चियन-नीति केवल आज्ञावाहक नीति है, और कुछ नहीं। अर्थात् उसका सिद्धान्त सिर्फ यह है कि आंख वन्द करके लोग उसके नियमों का चुपचाप पालन करें। उसकी आज्ञा है कि जितने अधिकारी हैं, जितने सत्ताधारी हैं, उनका कहना, बिना जरा भी जवान हिलाये, सब को मानना चाहिए। हां, यदि वे धर्मविरुद्ध कोई दुराचार करना चाहें तो उनकी आज्ञा मानना सुनासिब नहीं; पर वे चाहे हम पर जितना जुल्म करें, चाहे हमको जितनी तकलीफ पहुंचावें, हमारा यह कर्तव्य नहीं कि हम उनकी आज्ञा को भङ्ग करें। ऐसी हालत में उनके खिलाफ विद्रोह खड़ा करने, अर्थात् बलवा करने का, तो जिक्र ही नहीं। वह तो बहुत दूर की बात है। उसका तो नाम ही न लेना चाहिए। अब यदि आप पुराने सूर्तिपूजक देशों की नीति पर ध्यान दीजिएगा तो आपको मालूम हो जायगा कि उसमें स्वदेशनीति की बहुत अधिक महिमा गाई गई है-यहां तक कि व्यक्तिविशेष के स्वार्थ की अपेक्षा देश और समाज के स्वार्थ की तरफ अधिक ध्यान दिया गया है। अर्थात् पुराने मूर्तिपूजक देशों में जो देश अधिक समझदार थे उन्होंने स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ को ही विशेष महत्त्व दिया है। पर क्रिश्चियनों की नीति में, मनुष्य के इस बहुत बड़े कर्तव्य का उपदेश तो दूर रहा, नाम तक नहीं है। उल्लेख तक नहीं है; जिक्र तक नहीं है। उदाहरण के लिए, यहां पर मैं एक विशेष महत्त्व का वचन उद्धृत करता हैं। यह वचन क्रिश्चियन लोगों की नई धर्म-पुस्तक का नहीं है; मुसल्मानों के कुरान का है। वह वचन यह है:-"अपने राज्य में अधिक योग्य आदमी होने पर भी जो राजा कम योग्यता के आदमी को कोई अधिकार देता है वह केवल ईश्वर ही की दृष्टि में अपराधी नहीं होता, किन्तु देश की दृष्टि में भी अपराधी होता है-वह दोनों की दृष्टि में पाप करता है।" स्वदेशसेवा या स्वदेश-कर्तव्य के सम्बन्ध में जो थोड़ा बहुत महत्त्व आज कल की नीति में पाया जाता है वह निश्चियन नीतिशास्त्र की बदौलत नहीं है; उसके लिए हम लोग ग्रीस और रोम के पुराने नीतिशास्त्र के ऋणी है। उसीके प्रसाद से इस तरह की कल्पना हम लोगों के मन में पैदा हुई है। घर
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