गृहस्थी के कामों, अर्थात् खानगी बातों, तक में जो थोड़ा बहुत मनोमहत्त्व, उदारभाव और आत्मगौरव देख पड़ता है वह धार्मिक शिक्षा से नहीं, किन्तु मानुपिक शिक्षा से हमें मिला है। वह भी ग्रीक और रोमन नीतिशास्त्र ने ही हमें उधार दिया है। जिस क्रिश्चियन-नीति में सिर्फ आज्ञापालन पर ही इतना जोर दिया गया है उससे ये गुण हमको कदापि मिल भी न सकते।
मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि जिन दोषों का मैंने ऊपर जिक्र कियाजिन अभावों का मैंने ऊपर उल्लेख किया-वे सब आदि से लेकर अन्त तक क्रिश्चियन नीतिशास्त्र में भरे हुए हैं। उनको मैं सब कहीं अन्तर्वर्ती नहीं मानता। उनको मैं सब कहीं स्वाभाविक नहीं कहता। मेरा यह तात्पर्य नहीं कि चाहे जिस तरह से विचार किया जाय इन दोषों से इस नीति का पीछा नहीं छूट सकता। और न मेरे कहने का यही तात्पर्य है कि नीतिसम्बन्धी जो बातें इसमें नहीं हैं उनका मेल इसमें कही हुई बातों से नहीं हो सकता। खुद क्राइस्ट के सिद्धान्तों और उपदेशों पर तो मैं परोक्ष रीति ले भी इस तरह का दोपारोष नहीं कर सकता पाय से भी दोष दिख लाने की चेष्टा नहीं कर सकता। मेरी राय यह है कि जो कुछ जिस मतलब से क्राइष्ट ने कहा है वह बहुत ठीक कहा है; उसके सच होने में कोई सन्देह नहीं। नीतिशास्त्र में जितनी बातें अच्छी अच्छी होनी चाहिए वे सब, बिना खैंचातानी के, क्राइस्ट के उपदेशों में पाई जाती हैं। उनमें कोई बात ऐसी नहीं जो नीति के नियमों के प्रतिकूल हो। यह नहीं कि उसके कोई वचन सार्वजनिक नीति के किसी अंश से मेल न खाते हो। तथापि जो कुछ क्राइस्ट ने कहा है, जो उपदेश क्राइस्ट ने दिया है, उस सब में सत्य का अंश-मात्र है। अर्थात् सत्य उसमें सर्वतोभाव से नहीं है; सत्य का सर्वांश उसमें नहीं आगया। और, क्राइस्ट का उद्देश भी ऐला ही था। क्रिश्चियन-धर्म की नीव डालनेवाले इस आचार्य के जो वचन, या जो उपदेश, लिख रक्खे गये हैं उनमें उत्तमोत्तम नीति के बहुत से प्रधान प्रधान तत्त्व नहीं पाये जाते। क्राइस्ट का उद्देश भी उन तत्त्वों के बतलाने का न था। इसीसे क्राइस्ट की डाली हुई नींव पर क्रिश्चियन नीति की जो हमारत तैयार कीगई है उसमें उन तत्त्वों को जगह नहीं मिली। वे उसमें कहीं नहीं देख पढ़ते। इस दशा में संसार के सारे व्यवहारों से