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स्वाधीनता।


सम्बन्ध रखनेवाले नीतितत्त्वों को क्राइस्ट की नीतिमाला से ढूंढ निकालने का जो लोग हठ और दुराग्रह करते हैं वे भूलते हैं। जो लोग यह कहते हैं, कि यद्यपि क्राइस्ट ने नीति के सब नियमों की योजना अपने वचनों में नहीं की तथापि वे सब उस धर्मस्थापक को मंजूर जरूर थे, वे सरासर गलती करते हैं। मेरी यह भी राय है कि इस तरह की अनुसार बुद्धि-इस तरह की संकुचित कल्पना-धीरे धीरे अधिकाधिक हानिकारक होती जाती है और जिस नीति को सिखलाने और उत्तेजित करने के लिए इस समय समाज के अनेक हितचिन्तक परिश्रमपूर्वक प्रयत्न कर रहे हैं उसकी कीमत को वह बेतरह घटा रही है। मुझे इस बात के खयाल से बहुत डर लगता है कि इस प्रकार की खालिस धर्माशिक्षा के जोर से लोगों के मन और आचार विचार को परिमार्जित बनाने, और दूसरे प्रकार की नीति की कुछ भी परवा न करने, से लोगों का स्वभाव नीच, कमीना और पराधीन होता जाता है। दूसरे प्रकार की नीति, अभी तक क्रिश्चियन-नीति के साथ साथ सिखाई जाती रही है। उसने क्रिश्चियन-नीति की उन्नति तक की है। अब तक क्रिश्चियन-नीति की बदौलत अनेक अच्छे अच्छे तत्त्व दूसरे प्रकार की लौकिक नीतियों को मिले हैं और क्रिश्चियन-नीति ने भी दूसरी नीतियों से बहुत सी अच्छी अच्छी बातें पाई हैं। पर अब यह बात बन्द होती जाती है। यह अच्छा नहीं। इससे बड़ी हानि है। क्योंकि आदमियों के मनमें अब यह भावना जोर पकड़ती जाती है कि ईश्वर की इच्छा अनिवार्य है; उसे कोई रोक नहीं सकता; वह जो कुछ चाहता है करता है। यह कल्पना लोगों के मन में अव बहुत कम पैदा होती है कि ईश्वर परम दयालु है; ईश्वर की नेकी में कोई सन्देह नहीं; खूबी में ईश्वर अपना सानी नहीं रखता। मनुष्य की नैतिक उन्नति के लिए-मनुष्य की सदाचारवृद्धि के लिए-क्रिश्चियन नीति के साथ साथ और और नीतियों का होना भी बहुत जरूरी है। अर्थात् जो लोग क्रिश्चियन धर्मके अनुयायी हैं उनको चाहिए कि सिर्फ अपनी ही धर्मनीति के भरोसे न बैठे रहें, औरों की नीति से भी मदद लें। जब तक मनुप्यके मानसिक विचार पूर्णता को नहीं पहुंचते-जत्र नक मनुष्य का मन खूब उन्नत नहीं हो जाता-तब तक मतभिन्नता का होना बहुत जरूरी है। इस दशामें बिना मतवैचित्र्य के सत्य मत का-सत्य बात का पूरा पूरा ज्ञान नहीं हो सकता। इसका मुझे पूरा विश्वाल हो।