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तीसरा अध्याय।

जो अपने ईप्सित विकारों पर अधिकार नहीं रखता, उसके विषय में यह कहना कि उसके भी स्वभाव का कोई ढंग है, मानों यह कहना है कि भाफ के जोर से चलनेवाले यञ्जिन के स्वभाव का भी कोई ढंग है। अर्थात् जैसे किसी कल में स्वभाव की कोई विलक्षणता नहीं होती वैसे ही इस तरह के आदमी में भी कोई विलक्षणता या विशेषता नहीं होती। जिसके मनोवेग स्वाभाविक और प्रबल हैं और जो अपनी बलवती इच्छा के योग से उनको अपने काबू में रखता है वही सच्चा उत्साही है; उसीको सच्चा तेजस्वी कहना चाहिए। जो लोग यह समझते हैं कि मनोवेग और वासनाओं को उत्तेजन देकर उन्हें स्वतन्त्रतापूर्वक न बढ़ने देना चाहिए वे मानों यह कहते हैं कि समाज को प्रबल स्वभाव के, अर्थात् उत्साही, आदमियों की जरूरत ही नहीं है, स्वभाव की अधिकता रखनेवाले बहुत आदमियों से कुछ भी लाभ नहीं है; और मनोवृत्तियों का साधारण तौर पर उन्नत होना भी अच्छा नहीं है।

जिस समय समाज की बाल्यावस्था थी, अर्थात् जिस समय समाज अज्ञान-दशा में था, उस समय ये शक्तियाँ इतनी प्रबल थीं कि इनको रास्ते पर लाना और इन्हें काबू में रखना समाज को बहुत कठिन जाता था। एक समय ऐसा था जब स्वेच्छाचार और व्यक्ति-स्वातंत्र्य खूब बढ़े हुए थे। उनका प्रतिबन्ध करने के लिए—उनको वश में रखने के लिए—समाज का नाकों दम था। जिन लोगों की शक्ति खूब तेज थी या जिन लोगों के मनोविकार खूब प्रबल थे, उनका नियमन करने के लिए—उनको एक बतलाई हुई हद के भीतर रखने के लिए—उस समाज को जो नियम बनाने पड़ते थे उन नियमों की पाबन्दी उन लोगों से कराने में बड़ी कठिनता का सामना करना पड़ता था। इस कठिनता को दूर करने के लिए कानून बनानेवालों, और लोगों के आचरण को एक उचित सीमा के भीतर रखने की कोशिश करनेवालों, ने एक युक्ति निकाली; जैसे रोम के सबसे बड़े धर्म्माचार्य, पोप, योरप के बादशाहों के सर्वस्व पर अपनी सत्ता चलाने की चेष्टा करते थे वैसे ही समाज के मुखिया भी यह कहने लगे कि लोगों के सर्वस्व पर—उनकी सब बातों पर—समाज की सत्ता है। कोई बात ऐसी नहीं जिस पर समाज की सत्ता न हो—जिसका नियमन समाज न कर सके। ऐसा कहने से आदमी का स्वभाव—आदमी का आचरण—भी उसमें आ गया। क्योंकि आदमी का स्वभाव उसके सर्वस्व के बाहर नहीं है। जिस बात को अपने