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चौथा अध्याय।

न्याय से मिलना चाहिए उससे अधिक पाने की चेष्टा; दूसरों को नीच स्थिति में देखकर प्रसन्न होनेकी प्रवृत्ति; निजको और निजसे सम्बन्ध रखनेवाली बातों को सबसे अधिक महत्त्व देना; और सन्देह-पूर्ण प्रतिकूल बातों को अनुकूल बतलाने की स्वार्थबुद्धि—ये सभी बातें नीति की दृष्टि से दुर्गुण हैं। आदमी की नीति को ये दुर्गुण भ्रष्ट कर देते हैं। इनके कारण आदमी का स्वभाव बुरा और निंद्य हो जाता है। निजसे सम्बन्ध रखनेवाले जिस तरह के दोषों या दुर्गुणों का बयान ऊपर किया गया है उस तरह के दोष ये नहीं है। ये उनसे बिलकुल जुदा हैं। क्योंकि उनकी गिनती अनीति—गर्भित दोषों में नहीं हो सकती। बढ़ते बढ़ते व चाहे जिस नौबत को पहुँच जाँय तथापि वे दुष्कर्म्म, दौरात्म्य, दुर्जनता या क्रूरता की परिभाषा के भीतर नहीं आसकते। पहले वर्णन किये गये दोष सिर्फ यह जाहिर करते हैं कि जिसमें वे हैं वह या तो मूर्ख है, या उसमें आत्माभिमान नहीं है, या वह अपने अधिकार की गुरुता को नहीं जानता। बस। पर जहां दूसरों के हित के लिए अपनी रक्षा करना आदमी के लिए जरूरी है, वहां यदि वह अपने परार्थ-विषयक कर्तव्य को पूरा नहीं करता तो नीति की दृष्टि से समाज उसकी निर्भत्सना कर सकता है। आदमी का जो आत्म-कर्तव्य है, अर्थात् सिर्फ अपने हित के लिए आदमी को जो बातें करनी चाहिए; उन पर अपनी सत्ता चलाना समाज का कर्तव्य नहीं। ऐसे कर्तव्यों पर, ऐसी बातों पर, समाज का कुछ भी जोर नहीं। परन्तु यदि इन कर्तव्यों में, किसी कारण से, समाज के कर्तव्यों का भी कोई अन्तर्भाव हो जाय, अर्थात् एक ही साथ यदि उनका समाज से भी कोई सम्बन्ध सूचित हो, तो बात दूसरी है। इस दशा में समाज भी ऐसे कर्तव्यों का प्रतिबन्ध कर सकता है। आत्मकर्तव्य का मामूली अर्ध विचारशीलता या बुद्धिमानी है। जहां उसमें इससे अधिक अर्थ होता है वहां आत्मगौरव और आत्मोन्नति का अर्थ उससे निकलता है। इनमें से एक के लिए भी कोई आदमी किसी दूसरे के सामने जवाबदार नहीं। क्योंकि इन तीनों बातों में से एक भी ऐसी नहीं जिसे न करने से व्यक्ति को छोड़ कर संसार में और किसीकी कुछ भी हानि हो सके।

आत्मगौरव या बुद्धिमानी के न होने से आदमी की जो मुनासिब मानहानि होती है उसमें, और दूसरों के हक में बाधा डालने से उसकी जो छी थू होती है उसमें, थोड़ा फरक नहीं है। यह न समझना चाहिए कि दोनों