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पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/१८६

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चौथा अध्याय।

लोकमत के बल पर उनको बन्द करने का कोई अच्छा प्रबन्ध करे, और जो लोग इस तरह के दुराचार करें उनको कड़ी सामाजिक सजा दे? सांसारिक जीवनके सम्बन्ध में नये नये और अद्भुत अद्भुत तजरुबे करने के यत्न में बाधा डालने, या व्यक्ति-विशेषता का नियमन करने, अर्थात् उसकी उचित स्वाधीनता को कम करने, की बात यहां नहीं चल सकती। क्योंकि जब से जगत् की उत्पत्ति हुई तब से आज तक जांच करने पर जो बातें बुरी सिद्ध हुई हैं सिर्फ उन्हींको रोकने से हमारा मतलब है। हम चाहते हैं कि सिर्फ उन्हीं बातों का प्रतिबन्ध किया जाय जो आज तक के तजरुबे से बुरी सिद्ध हो चुकी हैं और जो एक भी आदमी—एक भी व्यक्ति—के लिए उपयोगी या उचित नहीं हैं। समय और तजरुबे की कोई हद नियत करके उसके आगे किसी नीति या व्यवहार-ज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाली बात को सिद्ध समझ लेना मुनासिब है। अर्थात् किसी विषय में एक नियमित समय बीत जाने पर, और एक नियमित तरह का तजरुबा हो जाने पर, वह विषय ठीक मान लिया जा सकता है। जो प्रतिबन्ध हम चाहते हैं उसका उद्देश सिर्फ इतना ही है कि जिस कगार के ऊपर से गिरकर हमारे पूर्वज चूर हो गये उसी कगार से पुश्त दर पुश्त लोगों को गिरने से हम बचावें।

इस बात को मैं अच्छी तरह मानता हूं कि यदि कोई आदमी अपने बुरे बर्ताव से अपना नुकसान कर लेगा तो उससे, हमदर्दी के कारण, उसके निकट सम्बन्धियों का भी नुकसान होगा और समाज का भी। पर सम्बन्धियों का नुकसान अधिक होगा और समाज का कम। उनको जरूर बुरा लगेगा और उनके हित की हानि भी थोड़ी बहुत जरूर होगी। दूसरे आदमियों से सम्बन्ध रखनेवाली बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिन को करना हर आदमी का कर्तव्य है। वे सब के करने लायक होती हैं; ऐसी नहीं होती कि कोई उन्हें कर न सकता हो। और वे छिपी भी नहीं होतीं; सब लोग उन्हें जानते हैं। यदि ऐसी बातों में से कोई बात किसी आदमी ने न की, तो उसका न करना निजसे सम्बन्ध रखनेवाले बर्ताव के भीतर नहीं आ सकता। ऐसी बात का अन्तर्भाव आत्मविषयक बर्ताव में नहीं हो सकता। वह उसके बाहर निकल जाता है। अतएव इस तरह का बर्ताव, नीति की नजर से घृणा, निन्दा या तिरस्कार का जो अर्थ होता है उसका पात्र होजाता है। एक उदाहरण लीजिए—कल्पना कीजिए कि संयम से न रहने और