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पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२८

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पहला अध्याय।


होना यद्यपि वे जरूरी समझते थे; तथापि वे यह भी समझते थे कि वह सत्ता अनर्थ भी कर सकती है। उनको यह डर रहता था कि राजा अपनी राज-सत्ता को जिस प्रकार बाहरी शत्रुओं के विरुद्ध काम में लाता है, उसी प्रकार, वह अपनी प्रजा के भी विरुद्ध काम में ला सकता है। सत्ताधारी बड़े बड़े बलवान् शिकारी पक्षियों के आघात से समाज के कमजोर आदमियों को, बचाने और उनके बल को न बढ़ने देने के लिए, उन लोगों को, उन पक्षियों से भी अधिक बलवान् एक जीवकी जरूरत पड़ती थी। पर, उन शिकारी पक्षियों का नायक पक्षिराज, जिस तरह, इक्के दुक्के कमजोर शिकार पर टूट पड़ने के लिए तैयार रहता था, उसी तरह, मौका मिलने पर, सारे समुदाय पर भी झपट मारने के लिए वह कमी न करता था। इसी लिए उसके नुकीले नाखून और तेज चोंच से अपना बचाव करने के लिए प्रजा हमेशा सचेत रहती थी। और, जो लोग प्रजाके हितचिंतक थे-जो स्वदेशाभिमानी थे-वे इस राजसत्ता को एक उचित सीमा के आगे न बढ़ने देने का हमेशा यत्न किया करते थे। उनको इसका ध्यान रहता था कि राजा अपनी सत्ताको प्रजा पर अनुचित रीतिपर काम में न लावे। उन्होंने इस सत्ता की सीमा को नियत करने ही का नाम स्वाधीनता रक्खा था।

इस सीमा को उन्होंने दो प्रकार से नियत किया था। अर्थात् उन्होंने राज-सत्ता के अनुचित बढ़ाव को दो तरह से रोका था। उनमें से पहली तरकीब यह थी कि उन्होंने राजा से कुछ ऐसे राजकीय हक प्राप्त कर लिये थे कि यदि राजा ने उनके अनुसार काम न किया; अर्थात् प्रजा को दिये गये वचन को उसने भंग कर दिया; या उसने उसके कुछ खिलाफ काररवाई पी; तो प्रजा यह समझती थी कि राजा ने अपना फर्ज नहीं अदा किया उसने अपना धर्म नहीं पालन किया। इस लिए वह बिगड़ उठती थी और चलपूर्वक अपना हक रक्षित रखने की कोशिश करती थी। इस तरह बिगड़ खड़ा होना और दल को काम में लाना मुनासिब समझा जाता था। दूसरी तरकीम यह थी कि कानून के द्वारा प्रजा ने राजा की सत्ता के अनुचित प्रयोग को रोक दिया था। उसने कुछ ऐसे नियम, अर्थात् कायदे, बना दिये थे कि प्रजा, या प्रजाके अगुवा, या प्रजा को नियत की हुई किसी प्रतिनिधि सभा, की अनुमति के बिना कोई भी महत्वका काम राजा न करें सकता था। यह पिछली तरकीब, कई देशों में, पीछे से प्रचार में आई।