नहीं है। उनका तेरे साथ यहाँ गहरा मत-भेद है। सर्वज्ञ! वे सपने को तुझसे कहीं अधिक विवेकी समझते हैं। तेरी भी ग़लती को आज वे गुरुजन ठीक करना चाहते हैं। तेरे मन्दिरों के 'प्रवेश-टिकट' उन देवताओंने ख़ास-ख़ास लोगों को ही दे रखे हैं। कुलीन, धनी और मानी ही तेरे मन्दिरों में जाने के आज अधिकारी हैं। शुद्र, अस्पृश्य, दीन और
दलित के लिए वहाँ सख्त मनाही है। तेरी प्यारी सूरत देखने की चाह उन बेचारों के दिलों में कितनी ही बेचैनी-भरी क्यों न हो, वे तेरे सामने जा न सकेंगे। मर चाहे जायँ तेरे लिए जीवन-भर रोते-रोते वे दलित अछूत, पर धर्म-धुरन्धर पुजारी उनके अशास्त्रीय अनधिकार प्रवेश से देवालयों को अपवित्र न करेंगे। अब प्रश्न यह उठता है, कि मन्दिर का असली मालिक कौन है? ठाकुरजी या पुजारी जी? जगन्नाथजी या द्विजाति-नाथजी? कुछ समझ में नहीं आता। कैसे तेरे मन्दिर में आऊँ? कैसे तेरे सम्मुख व्यर्थ अभिमान का भागी वनूँ? अपने को औरों से उच्चतर मानते हुए मन में अमित अभिमान का उद्य तो होगा ही। 'मैं निस्सन्देह महान् और पवित्र हूँ' तभी तो अपने परमपिता की पुनीत सेवा में उपस्थित होने का मुझे जन्म-सिद्ध अधिकार प्राप्त हुआ है। उन अधम अछुतों से तो मैं हज़ार दरजे अच्छा हूँ, जो मन्दिर के अन्दर सिर भी नहीं रख सकते। ऐसी क्षुद्र अभिमानमयो भेद-भावना तो मन में
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