तेरे वेहद वाग़ के आम गिनती फिरेगी! वन्दे तेरी वन्दगी
तो वजायँगे नहीं, तेरी हस्ती की उधेड़-बुन में उलझे रहेंगे!
प्यासी आँखों को तेरी रूप-सुधा तो पिलायँगे नहीं, ये मुर्ख
मतवाले तास्सुब की शराब में मतवाले हुए झूमते-गिरते
फिरेंगे! समझे बैठे थे, कि हम भी तेरी नेह-डगर पर चल
रहे हैं, पर निकला वह कोई और ही रास्ता! अपने आप
धोका खाया। गुमराह हो गये। वाद-विवाद में ही बहक
गये, सत्य का एक अंश भी हाथ न लगा। हर दीन की
ख़ाक छीनी, तोभी तेरी ख़ाकसारी हासिल न हुई। पक्ष-
पात के कारण किसी भी धर्म का सार-तत्व अनुभव में न
आया। और, पक्षपात-शून्य शायद ही संसार में कोई प्रच-
लित धर्म हो―मुझे तो याद नहीं पड़ता। मैंने तो जिस
किसी दीन को देखा, तास्सुब की ही आग उसमें धधकती
पाई। अपने धर्म में जो जितना ही ज़्यादा कट्टर होगा, उतनी
ही ज़्यादा उसकी तारीफ़ होगी। कट्टर वह, जो दूसरों
को काटने दौड़े। हाँ, पक्का धार्मिक वह, जो सद्भाव और
सहिष्णुता को ठुकरा चुका हो।
वेद ही ईश्वर-कृत है, कुरान और वाइविल तो निरी गपोड़वाजी से भरी पोथियाँ हैं―अथवा, वाइबिल या कुरान ही खुदा के आशमान से उतरे हैं, वेदों में तो सिर्फ़ गड़रियों के ही गीत भरे पड़े हैं, धार्मिक कट्टरों की वस ऐसी ही सद्धधारणाएँ हुआ करती हैं। संसार में आर्य-धर्म ही