सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

चुके हैं, जिनकी कूक से निकली हुई सत्य और सौन्दर्य की स्वर-लहरी आज भी हमारे हृदय को विलोड़ित कर रही है। उनकी सरल कूक संसारने सुनी, पर उपेक्षा से । श्रेष्ठ कलाकार ! तू उसे सुनकर मुस्कराया, पर अपनी भूल तत्क्षण स्वीकार करली । विद्वेष के कंटकित काननमें वह कोकिल-कूक व्यर्थ ही प्रतिध्वनित हुई । कौन जाने, माली के ही इशारे से या कैसे, उन भोले प्यारे पक्षियों की गर्दन मरोड़ दी गई । बेचारे खत्म कर दिये गये । सहिष्णुता पर द्वेष की विजय हुई । शैतानने खुदा को दवा दिया मालूम तो कुछ ऐसा ही हुआ । बुद्धने दुःख-पीड़ित विश्व को दयापूर्ण सहानुभूति का अमित दान दिया, बदले में उस शाक्यमुनि को नास्तिक की उपाधि मिली ! ईसाने कोढ़ियों की सेवा की, पतितों को छाती से लगाया, और इसका प्रायश्चित्त उसे अपने रक्त से करना पड़ा ! उस मस्ताने मंसूरने इस्लाम के तास्सुव को कुचलकर 'अन् अल् हक' की ब्रह्म-ध्वनि प्रचारित की और धर्मान्ध मुल्लाओंने उस ब्रह्मर्षि के रुधिर से अपनी सूली रंग डाली ! यार लोगोंने सरमद फकीर को भी शहीद बना दिया ! विद्वषियोंने उसका भी सिर उतरवा लिया। पर वाहरे मस्त सरमद ! सिर उतारते हुए आप फ़रमा रहे हैं-

“ उस शोखने, जो मेरा यार था, सिर शरीर से जुदा कर दिया- अच्छा किया ! किस्सा खत्म हुआ, वर्ना भारी सिर-दर्द था, जाता रहा।"

३८