सरमद का सिर दर्द चला गया और विद्वेपी धर्म-
व्यवसाइयों का दर्दे जिगर जाता रहा । एक काँटा कसकता
था, वह निकल गया। अच्छा हुआ; सरमद के कारण इस
लाम संकट में पड़ गया था, अव निकल आया, साफ़ वच
गया। सफल हो गई एक ब्रह्मवादी की पुण्यहत्या । उस
दयानन्दने भी धर्म और समाज के अगुमों के आगे कुछ वे-
तुकी-सी हाँकी थी, जिस के लिए उसे काँच-मिला दूध पीना
पड़ा ! यह इज्ज़त दी जाती है, प्रभो, तेरे सच्चे सेवकों को।
यह पुरस्कार मिलता है तेरे ऊँचे प्रेमियों को। और यह
सम्मान और यह पुरस्कार उन्हें देता कौन है ? उसी परम
पवित्र धार्मिक संसार के न्यायी प्रतिनिधि !
ईसा, सुकरात, मंसुर, सरमद् या दयानंद बचाना चाहते, तो अपने प्राण बचा सकते थे । अफ़सोस, कि वे मजहब के वकील न हुए। उन्होंने उस तर्क से काम न लिया, जो धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म सिद्ध कर देता है । जान पड़ता है, वे लोग धर्म के कानून से अन- भिज्ञ थे-वह कानून, जो सियाह को. सफेद और सफ़ेद को सियाह कर सकता है । वे तेरे रहस्य का सन्देश गली- गली योंही सुनाते फिरते थे । वह विश्व प्रेम का विचित्र सन्देश कट्टरों को न रुचा । धार्मिक राज्य-व्यवस्थापकों के कान खड़े हो गये । उन रसीदा संतों के रहस्यमय शब्दोंने उन्हें एक ज़ोर का धक्का लगाया । मठ भौर मन्दिर उस