सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


चलना होगा। वहाँ लोक सेवा ही कर्मयोग की पराकाष्ठ मानी जायगी। ख़िदमत करनी होगी, खुशामद नहीं । जनसाधारण की निष्काम सेवा करते हुए ही हम सृष्टि- निर्माता के सच्चे स्नेह-भाजन बन सकेंगे। कर्मवाद का आदर करते हुए भी साधक अपनी कमजोरियों का लेखा, मेरे न्यायाधीश, तेरे पैरों के पास रख दिया करेंगे। तुझ से पर्दा न रखा जायगा। सामर्थ्य दे, कि हम सब असमर्थ साधक अपना-अपना पर्दा हटाकर तुझसे क्षमा की भीख माँग सके।

हाँ, विश्व-धर्म में स्त्री का वही स्थान होगा, जो पुरुष का । अमीर जहाँ बैठेगा, गरीब भी वहीं बैठ सकेगा। न कोई ऊँचा माना जायगा, न कोई नीचा । मत-विद्वषी, वर्ण- विद्वेषी और वर्ग-विद्वेषी धार्मिक एवं सामाजिक कानूनों के वनानेवाले न होंगे। अदालतों में धर्म को दुहाई न दी जायगी, ईमान का सौदावहाँ तय न किया जायगा।मत-भेद तो होगा, पर प्रेम-भाव में कोई अन्तर न आने पायगा। आत्म-समता के सूत्र में विषमता के विविध मोती गुंथे रहेंगे। सन्देह और भय का स्थान विश्वास और प्रेम ले लेंगे। कैसा कंचन वरसेगा उस दिन पृथिवी पर, जिस दिन मनुष्य मनुष्य पर विश्वास करने लग जायगा! विश्व-धर्म ही वह दिन हमारे समीप ला सकेगा। शुभारम्भ हो गया है । अचलायतन की दीवार गिराई

५५