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स्वाधीनता।


जिनकी राय समाज की रायसे नहीं मिलती उन पर, सत्ता चलाने का उसे अधिकार है, उसका खण्डन सिर्फ इसी धर्म-सम्बन्धी विषय में किया गया है। जिन ग्रन्थकारों की बदौलत दुनिया को थोड़ी बहुत धर्म-संबन्धी स्वाधीनता मिली है उन्होंने इस बात पर बहुधा जोर दिया है कि धर्म के मामलों में ही आदमी को अपनी अपनी रुचि या समझ के अनुसार बर्ताव करने का पूरा हक है। इस बात को उन्होंने बिलकुल ही कुबूल नहीं किया कि धार्मिक विषयों में कोई आदमी दूसरों के सामने जवाबदार है। अर्थात् धर्म की बातों में जिस का जी जैसा चाहे वह वैसा ही आचरण कर सकता है। तथापि जिन बातों की आदमी अधिक परवा करते हैं, अर्थात् जिनसे उनके हिताहितका अधिक सम्बन्ध रहता है, उनके विषय में उदारता न दिखलाना मनुष्य-मान का यहां तक स्वभाव हो गया है, कि कुछ देशों को छोड़कर, और कहीं भी धर्म की उदारता का पूरा पूरा व्यवहार नहीं हुआ। धर्म के झगड़ों में पड़कर जहां के आदमी अपनी शान्ति को भंग नहीं करना चाहते, अर्थात् धर्मशून्य या धर्मकी तरफ से वे परवाह लोगों का पक्ष जहां प्रबल है, वहीं धर्म-सम्बन्धी उदारता, पूरे तौरपर, व्यवहार में लाई गई। 'कुछ देशों' से मेरा मतलब ऐसे ही देशों से है।

जिन देशों में धर्म की उदारता काम में लाई जाती है वहां के भी प्रायः सभी धार्मिक यह समझते हैं कि इस उदारता की हद जरूर होनी चाहिए। दूसरों को अपने धार्मिक व्यवहारों से जुदा अथवा विरुद्व व्यवहार करते देख उनको न रोकनेका नाम धम्मौदार्य, अर्थात् धर्म की उदारता, है। उसे एक तरह की क्षमा, सहनशीलता, तहम्मुला या बर्दाश्त कहना चाहिए। कोई कोई आदमी ऐसे हैं जो धर्म से सम्बन्ध रखनेवाली संस्था, सभा या समाज के कामकाज विषयक मतभेद को बर्दास्त कर सकते हैं, परन्तु स्वयं धर्मसम्बन्धी नियम, व्यवस्था या कायदेके मतभेदको नहीं बर्दास्त कर सकते। कोई कोई, एकेश्वरवादी या पोपके अनुयायियों ही को नहीं देख सकते; पर, और सब प्रकार के मतभेद रखनेवालों को वे कुछ नहीं कहते। कुछ ऐसे हैं जो ईश्वरके उपदिष्ट सभी धम्मों को मानते हैं अर्थात् और लोग चाहे जिस धर्म के हों, पर वे यदि उस धर्म को ईश्वरप्रणीत मानते हैं, तो ये तीसरी तरह के आदमी उनसे उदारता का बर्ताव करते हैं। कुछ लोग इससे भी अधिक उदारता दिखाते हैं। वे ईश्वर और परलोक पर भी विश्वास कर लेते