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पहला अध्याय।


हैं, पर उसके मागे नहीं जाते। अर्थात् जो लोग ईश्वर और परलोक को मानते हैं उनसे ये भेदभाव नहीं रखते; पर जो यहां तक बढ़े चढ़े हैं कि इनको भी नहीं मानते उनसे इनकी नहीं बनती। यह हालत उन देशों की है जिनमें धर्महीन लोगों का जोर अधिक है। पर, जिन देशोंमें धर्मनिष्ठा अभी तक शुद्ध और सबल है वहां वालों के इस खयाल को जरा भी धक्का नहीं पहुंचा कि जन-समुदाय, अर्थात् समाज, की राय हर आदमी को मानना ही चाहिए।

इंग्लैण्ड का राजकीय इतिहास दूसरी तरह का है। वह और देशों के इतिहास से मेल नहीं खाता। इससे यद्यपि समाज, अर्थात् सर्व साधारण, की रायका वजन कुछ अधिक है तथापि सरकारी कानून का बोझ अधिक नहीं है; वह कम है। यह बात और देशों में नहीं पाई जाती। यहां निज के अर्थात् खानगी काम-काजों में कानून बनानेवालों और सत्ताधारियों की खुलम खुल्ला दस्तन्दाजी को लोग बहुत बुरा समझते हैं। इसका पहला कारण यह है कि हर आदमी को मुनासिब स्वाधीनता दी जाने की तरफ लोगोंका बहुत ध्यान है। दूसरा कारण यह है कि लोग अब तक यह समझ रहे हैं कि गवर्नमेण्ट के सभी खयालात समाज के हितके अनुकूल नहीं हैं। इनमें से पहले कारण की अपेक्षा दूसरा कारण अधिक सबल है। समाज के अधिक आदमियों को अभी तक यह नहीं मालूम कि गवर्नमेण्ट की हुकूमत अपनी ही हुकूमत है और गवर्नमेण्ट की राय अपनी ही राय है। जिस समय लोगों को यह बात मालूम होने लगेगी उस समय हर आदमी की स्वाधीनता से गवर्नमेण्ट शायद उतनी ही दस्तन्दाजी करने लगेगी जितनी दत्तन्दाजी समाज, आज कल, उसमें कर रहा है। परन्तु, अभी तक, बहुत लोगों के विचार ऐसे हैं कि यदि गवर्नमेण्ट, कानूनके द्वारा, प्रत्येक आदमी की इन बातों का प्रतिबन्ध करना चाहे जिन बातों के प्रतिबन्ध को बरदास्त करने की उन्हें आदत नहीं है तो उन विचारों की धारा ऐसे प्रतिबन्ध के प्रतिकुल जोर से बहने लगे। उस समय लोग इस बात का बिलकुल विचार न करेंगे कि जिस बात की वे प्रतिकूलता करते हैं वह कानून से नियंत्रित या प्रतिष्ठित किये जाने के लायक है या नहीं। यह स्थिति यदि अच्छी समझी