"राजकीयसत्ताप्रणाली" है। उसमें जो अध्याय सामाजिक व्यवस्था पर है उसमें नैतिक निग्रह पर बहुत जोर दिया गया है। उसने वहां लिखा है कि समाज को चाहिए कि वह नैतिक निग्रह के द्वारा हर आदमी के कामकाज का खूब प्रतिबन्ध करे। इस सिद्धांत की उपयोगिता को साबित करने के लिए उसने इतनी खटपट की है जितनी कि पुराने दार्शनिकों में से निःसीम निग्रहवादियों की भी पुस्तकों में नहीं पाई जाती।
आज कल दुनिया में व्यक्तिविशेष के ऊपर समाज की सत्ता को बढ़ाने के लिए कुछ विचारशील पुरुषों को छोड़कर और लोगों की तरह कोशिशें हो रही हैं। इस सत्ता को वे लोग लोकमत और कभी कभी कानून के भी जोरपर, खींचखांचकर, अनुचित रीति से बढ़ाना चाहते हैं। यह बहुत बुरी बात है; यह एक प्रकार का अनिष्ट है। क्योंकि इस समय संसार में जितने परिवर्तन हो रहे हैं उन सब की झोंक समाज की शक्ति को बढ़ाने और व्यक्तिमात्र की शक्ति को घटाने की तरफ है। इस कारण आदमी की स्वाधीनता के ऊपर लोगों की यह आक्रमण-प्रीति यह दस्तन्दाजी, यह बेजा मदाखिलत ऐसी नहीं है जो आप ही आप किसी समय दूर होजाय, अर्थात् आप ही आप जाती रहे; किन्तु दिनोंदिन उसके अधिक भयंकर होने का डर है। चाहे राजा हो चाहे मामूली आदमी-सबकी यही इच्छा रहती है, प्रत्येक पुरुष यही चाहता है, कि और लोग उसीकी समझ या प्रवृत्ति के मुताबिक उसीके मत के अनुसार बर्ताव करें। इस तरह की समझ, प्रवृत्ति या झुकाव को मनुष्यमान के कुछ बहुत ही उत्तम और कुछ बहुत ही अधम स्वाभाविक मनोविकार यहाँ तक मजबूत बना देते हैं कि बलाभाव-शक्तिहीनता-को छोड़कर और किसी बात से बहुधा उनका प्रतिबन्ध नहीं होता। अर्थात् जब तक शक्ति रहती है तब तक अपनी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार लोग जरूर ही काम करते हैं। शक्ति छिन जाने पर ही उनकी यह अनुचित प्रवृत्ति आगे बढ़ने से रुकती है। यह शक्ति घटती नहीं है; किन्तु दिनबदिन बढ़ रही है। इससे इस अनिष्ट को, हम लोग, यदि मानसिक धैर्य और दृढ़ निश्चय की मजबूत दीवार उठाकर रोक न देंगे तो वह बराबर बढ़ता ही जायगा। संसार की वर्तमान अवस्था को देखकर हमें ऐसा ही डर है।
स्वाधीनतासे सम्बन्ध रखनेवाली सब बातों का एक ही साथ विचार आरंभ करनेकी अपेक्षा पहले उसकी एकही शाखा का निरूपण करने में