अधिक सुभीता होगा। क्योंकि ऊपर वर्णन किया गया सिद्धान्त, उस शाखा के सम्बन्ध में, लोगों को बिलकुल तो नहीं, परन्तु, हां, बहुत कुछ मान्य है। इस शाखा का नाम विचारसम्बन्धिनी-स्वाधीनता है। लिखने और बोलने की स्वाधीनता उसीके अन्तर्गत है। इनमें परस्पर सजातीय भाव है। अर्थात एक दूसरी से जुदा नहीं हैं। जो देश इस बात को प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि उनकी राज्यप्रणाली स्वाधीनता से भरी हुई है और धार्मिमक उदारता दिखालाने में वे जरा भी कसर नहीं करते उनकी राजनीति-प्रणाली को लिखने, बोलने और विचार करने की स्वाधीनतायें बहुत कुछ मान्य जरूर है; परन्तु जिन व्यवहारिक बातों पर उनकी नीव पड़ी है उनसे सर्वसाधारण अच्छी तरह परिचित नहीं हैं। यहां तक कि समाजके अगुवाओं में से भी बहुत आदमी उनको पूरे तौर पर नहीं समझते। वे बातें यदि अच्छी तरह समक्ष में आजायंगी तो उनकी योजना, इस विषय की एक ही शाखा के निरूपण में नहीं, किन्तु और और शाखाओं के निरूपण में भी की जा सकेगी। इससे इस शास्त्रा का पूरा पूरा विवेचन दूसरी शाखाओं के लिए एक अच्छी प्ररतावना का काम देगा। गत तीन सौ वर्षों में, इस विषय का, बहुत कुछ विवेचन हो चुका है। जिस पर भी में इस विषय में एक दफे और भी कुछ कहने का साहस करता हूं। इस लिए जिन लोगों को मेरे लेख में कोई भी नई बात न देख पड़े, वे इस साहस के लिए मुझे कृपा-- पूर्वक क्षमा करें। आशा है, वे मेरी इस क्षमा प्रार्थना को जरूर मंजुर करेंगे।
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पहला अध्याय।