पृष्ठ:हमारी पुत्रियाँ कैसी हों.djvu/१३९

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अच्छा और सस्ता मिल जाता है। जो लोग फुटकर दूकानदारों से जब जी. चाहे सस्ता माल खरीदा करते हैं वे सदा घाटे में रहते हैं । यदि स्त्रियाँ यह नियम कर लें कि वे प्रति दिन अाध पाव सूत कात लिया करें तो साल भर में इतना कात लेंगी कि गृहस्थ के कपड़ों का सारा खर्च निकाल कर कुछ बचा भी लेंगी और बचा हुआ रुपया अन्य कार्यों में काम आ जाएगा । बिछौना, रजाई, लहंगा, पाजामा, कोट भिन्न- भिन्न प्रकार के वस्त्र खदर से बन सकते हैं । खद्दर यहाँ की ही उपज है, शोभा भी अधिक देता है, अनेक प्रकार के रंग देने से वह अधिक चमक देता है । खर्च कम है और शोभा खूब है, स्वदेश का और अपना दोनों का लाभ है, और धर्म रक्षा भी होती है । अब तो भारतवर्ष के प्रान्तों में ऊनी, रेशमी, टसरी, अनेक प्रकार के वस्त्र बनने लग गये हैं, जिससे धनाढ्य अपनी इच्छानुसार कुछ अधिक म्यय से भी खरीद कर पहिन सकते हैं और अपने बच्चों को भी पहिना सकते हैं, इससे अपने देश की कारीगरी शिल्प तथा उनके कर्ताओं के उत्साह को द्विगुणित देख सकते हैं । यदि धनाढ्य स्त्रियाँ स्वयं चर्खा कात कर वस्त्रों की आवश्यकता पूरी करें तब तो कहना ही क्या ! वस्त्र प्रायः तीन प्रकार के होते हैं--ऊनी, सूती और रेशमी । उन भेड़ों और ऊंटों के बालों से बनाई जाती है। उन के वस्त्र में यह गुण है कि इसमें सदी कम प्रविष्ट होती है और शरीर की गमी नष्ट नहीं हो पाती । यह हवा की नमी को चूस कर शरीर को उससे बचाता है । किंतु उनी वस्त्र शरीर से मिला रहे, तभी उसमें यह लाभ होता है। रेशम भी नमी को बहुत चूसता है और अपने में गमी को बहुत प्रवेश कराता है इसीलिए शरीर की गर्मी नष्ट हो जाती है । इसमें बिजली का प्रवेश नहीं होता। सूती वस्त्रों में बाटा चावल या चबी की मांडी दी जाती है। मिल के कपड़ों में ची की मांड़ी होती है जिसमें बहुत से रोग-जन्तु होने