लखि प्रभात प्रकृति की शोभा, बार बार हुलसानोरी। प्रभु की दया सुमिर निज मन में, सरल भाव उपजानोरी ।। ब्रह्मरूप सागर में मन को, बारम्बार डुबानोरी । निर्मल शीतल लहरें ले ले, पातप ताप बुझानोरी ॥ आरती जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे ॥ टेक ॥ भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे । जो ध्यावे फल पावे, दुख विनशे मन का ॥ सुख सम्पत्ति घर अावे, कष्ट मिटे तनका ॥जय०॥ मात पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किस की। तुम बिन और न दूजा, श्रास करूं जिसकी ॥जय०॥ तुम पूरण परमातमा, तुम अन्तरयामी । परम ब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी ॥जय०॥ तुम करुणा के सागर, तुम पालन कर्ता । मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भती ॥जय०॥ तुम हो एक अगोचर, सब के प्राण पति । किस विधि मिलुगुसाईं, तुमको में कुमति ॥जय०॥ दीनबन्धु दुःख ही, तुम ठाकुर मेरे । अपने हाथ उठाश्रो, द्वार खड़ी तेरे ॥जय०॥ विषय विकार हटायो, पाप हरो देवा । श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, सन्तन की सेवा ॥जय०॥ भैरवी वन्देमातरम् । सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्,