पृष्ठ:हमारी पुत्रियाँ कैसी हों.djvu/१७१

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१६० अध्याय बारहवां पुत्रियों को स्वर्ण उपदेश -पुत्रियों, तुम समुद्र की भाँति गम्भीर, फूल की भाँति कोमल, पर्वत की भाँति अचल और चाँदनी की भाँति पवित्र रहो। २-सुम सदा खुश रहो, सत्य बोलो, चोरी, हिंसा, छल पाखण्ड से दूर रहो। सुसराल में जाकर पति परिवार की यथोचित प्रम और नगन से सेवा करो, सास-ससुरों को अपने गुणों का प्रशंसक बना लो । गृह कर्म,चतुराई एवम् मिष्ट भाषणसे यह काम होगा। ४-मान कभी न करना, रूठना-मचलना, दो हृदयों में भेद डाल देता है, इससे प्रेम का पौदा सूख जाता है और घृणा का कीड़ा लग जाता है। बेटियों, तुम ससुराल में कभी मान न करना, कभी न रूठना । यदि तुम्हारी इच्छा और रुचि के विपरीत भी कुछ हो तो उसे सहन करना । इसी में भलाई है। -देवरानी, जिठानी, ननद और उनके बालकों से सदा प्रेम करना, यदि वे उन्हें भिड़के भी तो तुम उन्हें प्यार करना । ६--हमेशा शौकीनी से बचना । हाँ, शरीर को सदैव स्वच्छ रखना- कपड़े सदा स्वच्छ पहनना । -जहाँ तक हो घर का काम हाथों से करना । पीसने, कातने, रसोई बनाने और बर्तन मांजने आदि के कामों से कभी अरुचि न प्रकट करना । यदि नौकरों से भी काम कराना हो तो स्वयं निगरानी अवश्य रखना। -ऐसा कोई धन्धा जरूर सीख लो जिससे मुसीबत के समय काम ले सको औह बिना किसी का आसरा देखे जीविका निर्वाह कर सको।