सतियों और दवियों की कहानियाँ सुनानी चाहिएं। कुलटा और विध. वाओं कि चची, या दूपित चरित्र वाले व्यक्तियों की चर्चा उनमें न हो। ५ वर्ष की बालिक को उधर अक्षराभ्यास कराना चाहिए और इधर कुछ छोटे-छोटे भजन . दोहे, कविताएं, पहेलियाँ कंठस्थ करा दी जायं। ८ वर्ष की बालिका को सन्ध्या-वन्दन के मन्त्र, श्लोक याद हो जाने चाहिएं और वे म्नान के बाद प्रातःकाल तथा सायंकाल इनका एकाग्र हो कर पाठ करने का अभ्यास करें। हमारी खुली सम्मति है कि लड़कियों को अक्षराभ्यास के लिये प्रारम्भ में ही कृन में न भेजें । इससे उनका बहुत-सा समय नष्ट होगा। स्वयं माता-पिता या अध्यापक द्वारा उन्हें घर पर ही तीसरी श्रेणी तक की पढ़ाई ख़तम करा दी जाय । यदि अच्छी तरह चेष्टा की जाय तो साधा- रण बुद्धि की कन्या भी स्कूल की अपेक्षा प्राधा समय पढ़ने में खर्च करके १ वर्ष में इतनी शिक्षा प्राप्त कर लेगी। साथही घर के बहुत से काम भी सीखती रहेगी। यदि कन्याओं को उच्च शिक्षा नहीं देनी है और १६ वर्ष की ग्रायु के लगभग उनका विवाह कर देना है तो उन्हें ८ वी श्रेणी तक की शिक्षा दिलाकर स्कूल से पृथक कर लेना चाहिए । और फिर घर पर उन्हें चुनी हुई उनम उत्तम जिनमें कुछ धर्म, कुछ विज्ञान, धात्री शिक्षा, चिकित्सा सम्बन्धी पुस्तकं होनी चाहिए । इस समय में वह अधिक समय, गायन, वाद्य, गृहप्रबन्ध सुई, कसोदा, भोजन श्रादि कार्यों में लगाये। इस अवसर में उन्हें ड्राइंग, चित्रकला, और नक्शे नवीसी का भी काम सिखाना चाहिए। यदि इसमें उनकी खास रुचि हो तो उन्हें विशेष शिक्षा दी जाय। उच्च शिक्षा जिन कन्याओं को दी जाय उन्हें मेट्रिक तक तो घर ही में रहना अनिवार्य होना चाहिए । कालेज जाने पर यदि श्रावश्यक हो तो उन्हें छात्रावास में रखा जा सकता है। परन्तु इस सम्बन्ध में हमारी अनु- २
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