पृष्ठ:हमारी पुत्रियाँ कैसी हों.djvu/७१

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६० फलों का महत्व जीवन के साथ फलों का कैसा गहरा सम्बन्ध है इस बात को विचा- रना चाहिए। सृष्टि के ग्रादि काल में जब इस भड़कीली सभ्यता का विकास नहीं हुआ था, और शान्त स्वभाव मुनि लोग केवल फल श्राहार करके ही स्वाभाविक जीवन व्यतीत करते थे । तब जीवन कैसे स्वस्थ श्रानन्दमय और सरल । मस्तिष्क कैसे मेधावी थे। जगत के ज्ञान के ग्रादि देवता वेद, गूढ, दर्शन, शास्त्र और गम्भीर उपनिषद उन फला- हारी तपस्वियों के स्वच्छ मस्तिष्क उपज थी । रोग, शोक, अल्पायु, दविल्य, विना क्रोध, भय, तमोगुण का चिन्ह भी तब नहीं था । मनोरम तपोवनों में ऋषिगण ऊपा की मोहक लाली में कुशा के अासन पर कर सूर्य पर दष्टि दिये पवित्र साम गान करते थे । फलाहार करके ही वे अनन्त भविष्य के मानव पुत्रों के लिये अध्यात्म विज्ञान का खजाना इकट्ठा करते रहते थे। केस पुण्यमय थे वे दिन जिनकी सति भी आज पवित्र प्रतीत होती है । सभ्यता के उदय के साथ ही मनुष्य के ग्वानपान और रहन सहन में चटक मटक अाती गई और बनावट इन्द्रियों के भोगों में फंसकर मनुष्य अनेक प्रकार से विषय लोलुप हुअा । परिणाम यह हुया कि रोग, शोक, अल्पायु और वेदना मनुष्य की तकदीर में लिखी गई । छोटे छोटे पक्षियों को देखो कितने फुरतीले और चतन्य मय रहते हैं । कच्चे ज्वार, बाजरे और चने के दाने बड़ी सरलता से ग्या और पचा जाते हैं । घोड़े, गधे, ग्वच्चर और दूसरे परिश्रमी जानवरों की अोर निगाह डालो उनके शरीर केस बलिष्ट और नीरोग हैं । संसार के मुग्य में जितना भोग भोगने की मनुष्य उन्हें स्वतन्त्रता देता है, उसी में वे कितना पान- न्द प्रात करते हैं । बच्चों के पैदा होने में स्त्रियों को कितना कष्ट होता है और उनमें कितनी मर जाती या अपाहिज हो जाती हैं । उनकी दुःखमय अवस्था का जब पशु पक्षियों की प्रसव वेदना को सरलता से मुकाबिला किया जाता है तब मनुष्यों के भाग्यों पर शोक होता है।