पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आज उडा ले खूब मजहका जग चाहे उसकी बातों का, पर, उसके ही कर से होगा पूर्ण भाग जग को रातो का, जन-जन के शका-मेयो रो मावृत है उसका विचार-रवि, नहीं देख पायो है जग ने उसकी शुद्ध, ज्वलन्त ज्योति छवि फिर भी निविड गहन तम-भजन कर किरणे मा हो जाती है, और एक उल्लास-प्रेरणा नर-हिम मे छा हो जाती है, हट जाते हैं जरा देर को जब सन्देही के दल - यादल,' तब होता है शान कि चिरपद पा सकता है मानय दुबल, उसके नयनी में सपना है, कर में है दरदान अनेको, अपनेपन को होम-होम कर पाया है उसने अपने को, यम-नियमो के नागपाश से वौध विराग मेर, धीरज घर हिय समुद्र - मन्थन पर, लाया वह यह अमृत शुद्ध, गुचि, भयहर, हम विपपायो जनमक 5$