पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१०८

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निपट शून्य से उठ आती है हूक-भरी जो स्मृति अनजानी, जो मथ देती है अतरतर, जो करती हिय पानी-पानी,- उसी सजल स्मृत्ति से चूसी है क्या आनन्त्य-सुरस की दें। यह भ्रम है। रे मामब, तू ने पयो अनन्तता की हठ ठानी? सुनकर यह ललकार तर्क की हो दयाद्र मानव मुराणाया और अनेका युगो के सपने वह निज गयनो में भर लाया, कर याची दिवा-काल-परिधि ने मानव की उडान अलबेली भावार्णव का थाह, कहो तो. तर्क-यादिता ने गाय पाया? जगती को क्षण-भगुरता में यदि न रहे भान त्य चिरन्तन, यदि न रह निमिपो को गति मे नित्य सनातनताका कम्मन,- तो इस सृति मय सकल विश्व का तिरोधान पल मे हो जाये । अरे नित्यत्ता ही करती है इस अनिरलता का गति-रजन । हम यिषपायी जनम के ८५