पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१०९

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यह, जो है चल, चपल, अनस्थिर, यह जो है अतिशय क्षण भगुर यह सब है अनन्तता या हो किंचित् परिवत्तित नव मनुर । यदि न रहे आनन्त्य सनातन, तो फिर कहाँ रहे भगुरता? पदिन सरल पथ की स्थिति हो, तो, कैसे कल्पित हो पथ बन्धुर' जग की गमन-शीलता भी क्या दिन स्थिरता के बुद्धि गम्य है? और सतत 'परिवर्तन' मे भी क्या न 'नित्य' की छटा रम्य है? विना नित्यता के सम्भव है क्या अनित्यता का दिग्दर्शन? अरे तर्क, तब मूढ-वादिता क्या किंचित् भी यहा क्षम्य है ? किसका साहा है कि कर सके मेरा स्नेह काल दिक् सीमित ? कौन बाधने आ सक्ता है उरो जो कि है सदा असीमित? नित्य, सनातन, सदा शाश्वतर है मेरे हिय की रस-धारा, और मदिर लोचन मम पिय का निर प्रसाद है अमित, अपरिमित 58 हम विपपाची जनमक