पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/११०

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जिन कोमल भुज वल्लरियो ने बांध मुझे चल, चपल क्षणो मे, निमिषो को अनन्तता दी थी अमिय भरा था रक्त-कणो में, वे भुज-लतिकाएं जगती से लुप्त हुई है। पर, इससे क्या? अरे, हो गयी है अनन्तता समाविष्ट इन प्राण-पणो मे। वह पीयूप-दान साजन का बह रिम झिम-रिम मधु-रस-वर्पण,- बह उन्मादक नयन-निमन्त्रण वह दृग-नि सृत चिर आत्मार्पण,- कौन कहेगा इन्हे कि ये हैं केवल अचिर राग क्षण-भगुर ? होता है जिनकी स्मृति ही से सन्तत रोम-रोम या हर्पण । मम सनेह औ' मेरे प्रियतम फब थे अन्तवन्त, बोलो तो क्या न सुने वे स्वर जिनसे है। गुजित दिग्-दिगन्त, बोलो तो। गहन राग-रस-निझरिणी मे तृण यन यही क्षणिकता चवल, क्या न हृदय की अमल भावना है शाश्वत, अनन्त, बोलो तो? १३ बी० फीरोजशाह रोड, नयी दिल्ली २९ मार्च १९४७ हम विपपायी जनम के FO