पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/११२

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उसो द्विपद वी, नील गगन ने भेजा है उड्डोन-निमन्त्रण। गूंज रही है उसके ह्यि में परवो की रान-सन-रान-सन-सन ॥ विचर रहा मानव रहा न जाने कितने मुग-युग लौ सोया-सोया-सा, क्या हिंसाब कितने युग से यह सोया-खोया-सा? किन्तु नीद मे भी तो उसने देखे उडने के ही सपने। औ सतत विचरण में भी वह रहा खोजता ने अपने। नही पा सका है अब तक भी अपने मन्न, और अपनापन, यह रहस्य - उद्घाटन-रत मन, यह अमफल जन, यह मालथ तन 1 क्या जाने कितनी लम्बी है उसकी यात्रा की पगडण्डी? चया जाने कितना कर आया माग-क्रमण अब तक यह दण्डो? नित देशाटन, रातत परिवजन, सन्तत चलन, दिग्भ्रमण क्षण-क्षण, सतत अतन्द्रित निमिप-गणन यह, यह दिक्-काल सकलन क्षण-क्षण, हम विपपायो सनम के ८९