पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/११३

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यही रहा है मानव का यही नियति का है रेसाकन । यह रहस्य - उद्घाटन - रत जन कर-कर भ्रमण हुआ सपलथ तन । 2 पीछे मुडकर कौन निहारे- कितनी दूर मा चुका मानव बारता है स्वीकार गणित मी- इस दिशि अपना पूर्ण पराभव । आगे की भी क्या गिनती हो, जहाँ सकुचते है मन्वन्तर ? जहा ब्रह्म - दिन भी छोटे है, लघु है द्युति - वर्षों के अन्तर । इस महान दिक्-कालाणव मे मानव करता सतत सन्तरण, यह रहस्य-उद्घाटन - रत मन, यह असपाल जन, यह सश्लथ तन । मानव की झोली मे सचित है कितने ही ककण - पत्थर, जो कुछ मिला पन्थ मे, उसने, बह सर उठा लिया है सत्वर, यह सब सचित वोक्ष युगो का टाँगे वह अपनो लकुटी पर, शुका भार रो चला जा रहा नाप - नाप पय-लीक निरत्तर। 40 हम विपपायी जनम के