पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/११४

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इतने पर भी गूंज रहे हैं हिय में 'नैति-नेति' के ही स्पन 1 मह रहस्य-उद्घाटन-रत जन सुन-सुन होता क्षण-क्षण उन्मन ।। मानच ने विसृष्टि लोला लख पूछा निज से 'का सा कोऽह ? मानव अपने अन्तरतर मे निरस कह उठा 'साह । सोऽह ।' इस 'मोह सोह' की अब तक रार मची है अन्तम्वल मे, नेति ओर इति जूझ रही है मानव के इस हृदय विकल में । यह रण व्यक्त कर रहे उसके रोम-रोम, शोणित के कण-कण । है रहस्य - उद्घाटन - रत पद्यपि है सरलय मानव सन । मना जगत्-रूप हृदयगम करने कहा-कहाँ दौडायो निज मति । कितनी प्रखर साधना उसकी। अति प्रचण्ड विज्ञान-ज्ञान-रति कर दर हटाये प्रकृति नत्तकी अन्तर-पट, किन्तु अभी तक, इतने पर भी र यवनिका मकट। मिठा न हम विषपायी जनम क १