पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/११५

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परदे मे हो रही प्रकृति की नृत्य चलित पोजन को सन झन । यह रहस्य - उद्घाटन - रत जन सुन-सुन होता क्षण क्षण उन्मन ।। लीलामयी प्रकृति मानव से खेल रही है आंख-मिचौनी, औ' गागव है अपिहित लोचन, जडगुण-बद्ध, स्तब्द, अति मौनी । ऐगा प्ल, कि रहता ही हे सन्तत दावें इसी मानव पर, मानव के शिर पर हैं मण्डित जिज्ञासा - अभिशाप भयकर कहा जाय ? किस दिशि यह झाके ? टूळे यहाँ ? विसे यह क्षण क्षण यह रहस्य - उद्घाटन - रत मन, यह असफल जन, यह सरलय तन 1 2 होकर पभो बुहवा आयी अम्बर रो 'लो ।' यो बोली सर्व उद्धगण, मानव ने उग्रीवी उधर उठाये अपने लोचन, 'ढो दूटो' के पाताल अतल से मानन ने घवडाकर मोटे अपने युग दृग चक्ति अवसरो, हम पिपायी जनम क आये स्वर ९.२