पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

किन्तु उसी क्षण दिशि-दिशि गुजा 'ढूंढो - ट्र्यो' का यह मुजन किधर निहारे? किसको हो, यह बौराया-सा जन उन्मन? बाहर तो 'हूँढो - ढूंढो' - को सबै दिशि यह गुजार भरी है, पर भीतर भी यही महाध्वनि मथन शील, यपार भरी है, लखो, चतुर्दिक यह पागल सा आकुल मानव डोल रहा है, अपने युग-युग के यत्नो को निज दृग-जल मे घोल रहा है, उसे दिखाई पड़ा सभी दिशि अपने हिय का सन्तत कम्पन , यह रहस्य-उद्घाटन - रत जन, भ्रमित हुआ है, है सलय तन । यह गभीर सृजनाणवै दुस्तर, परम अगम, फेनिल, चिरपकिल । लहराते जिसके अत्तर में, नित्य, सनातन प्रश्न -तिमिगिल ।। 'युत आयाता इय विशृष्टि'? 'क इह प्रयोचत । अहो पेदक ।' 'अम्याध्यक्ष परमै व्योमन्, अग वेद यदि वान वेद स?' हम विषपायी जनम में ०३