पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/११७

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अपना मुख पलाये आये सम्मुख ये चिर प्रश्न पुरातन । यह रहस्य- उद्घाटन - रत जन, है सइलय तन, है अति उन्मन । यो आयो वन अतिथि, मनुज के हिय मे, यह विदेशिनी पीडा, यो मानव अपने को भूला, भूल गया वह अपनी ईडा। चिदानन्द मय अपनी सत्ता उसने अपने - से विसरायी, प्रश्तो की उलझन मे पड़कर अपनी विपदा और बदायी, किन्तु अंजा है मानव-ग में ऊहापोह व्यथा का अजन, अत रहस्योद्घाटन - रत जन, है उत्सुक, यद्यपि सश्लथ तन । मानव को जिज्ञासा की है साजी स्वर प्रकृति सत्यागी, युग-युग से हुकारे करता चला आ रहा है यह प्राणी । में भीषण - दिव् - काल - अरर उस ध्वनि - मात से चिर कम्पित है लस मानव के पल निरन्तर प्रखर प्रभाकर भी स्तम्भित है। ९४ दम विषपायी जनम के