पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/११८

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देख-देखकर वामन यो यमित चवित्त है नम-तारवा-गण, यह रहस्य-उद्घाटन-रत जन चला जा रहा हे सरलय तन । अम्बर कोपा, अपनी कापी, कोप उठे नभ के सब तारे, इस मानव को 'न-इति न-इति ।' सुन सभी लोक-लोकान्तर हारे, काल कपा, आकाश कंप उठा सुन-सुन इसको 'न-इति' हठोली, सव ने देखा है मानव की ग्रीवा उन्नत, पदपि लचीली । इतिहासो ने पन्ने भी हैं मानब का कर रहे सस्मरण यह रहस्य-उद्घाटन-रस जन चला जा रहा है संश्लथ तन। कोटि-कोटि ज्योतिर्वपी तवा फैला है विस्तार मनुज का, वाहां-यहाँ तक पहुंच चुका है अति तनु मन इस द्विपद-द्विभुज का। विस्तृत है इसकी लीला लघु विद्युन्मणि से ब्रह्माण्डों तक, इसके महाकाव्य को गाथा पहुंची है अगणित वाण्डो तक 1 हम विपपायो जनम के ९५