पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१२१

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बन्धन। लुप्त हो रहे है क्या जग से मूत्त अमूत्त-त्प के पूछ रहा है यो आकुल-सा यह रहस्य-उद्घाटन - रत जन। अपने से, असन्तोप है इस मानव को सारे जग के इस सपने से, वो' जग की क्या करें शिकायत? असन्तुष्ट है वह वह आया है करने इतने ब्रह्माण्डो का तत्त्व-निरीक्षण, किन्तु मिले हैं निपट अधूरे उसे इन्द्रियो के ये लक्षण, इतने ये विज्ञान - ज्ञान को साधन तव, फिर क्यो न हृदय मे सोने यह रहस्म - उद्घाटन - रत जन इतने क्षुद्र, असगत 3 1 श्रीन, चक्षु, रसना, स्पशन, मन, प्राण, इन्ही के बल यह मानव- सुलया रहा उरझनें जग बी, पोज रहा है अचरज नव नव किन्नु साथ ही, नयी समस्या मानव उपजाता जाता है, एक प्रश्न मुरझा कि इमरा, उगो मतिमान जाता है, . १८ दग विषपारी जनम