पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१२६

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इसी नित्य प्राप्तब्य ध्ये गये ओर जा रहा है यह लघु जन, यह रहस्य-उद्घाटन-रत मन, मसहीग यह, मह रालय सन 1 केंद्रीय कारागार, परैली ५रिसम्पर १९४३ . नास्तिक का आधार जब लहराता वहा समीरण, सर मे उठी 'तरग, जब सस्मृति पयार डोलगे, तब हिय में उठी उमग रवि किरणो से नम में चमका, इन्द्रधनुषाका प; प्रिय, तव स्मिति युति से चमकी मम स्नेह करपना-नगर हरित, नील, लोहित, नारंगी, पाम, पीत सुरुचाप त्यो मम नेह-चग पर चमकी तव रगो की डाए, सूर लामो इरो, प्राण-धन, अपने अम्बर बीच, तब फ्रीडनक बने, इसकी है यह अभिलाप अमाप । तव आधार रहे, तो फिर या विपदाओं को बात' ? तुम अनुकूल रहो विपदाओ को तव कोन बिसात। कुछ न बिगाड़ सकेगी मेरा अति प्रतिकूल यमार, में मते-हंसते सह दूंगा झझा के आघात। सम विपपापी जनम के 10३