पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१२७

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प्रिय, में जान हूँ, है अति हो दुयह मेरा भार, पर, अब तो मै आन पडा है विवश तुम्हारे द्वार, आस्तिवा कहते है उनमा हरि के हाथ नियाह, मैं नास्तिक बहता हूँ मेरा भी है कुछ आधार बरेली 1 वैद्रीम वारागार, यथार्थवादी मुझे लग रहा है यह मेरा जीवन विफल महान्, फटा फटा सा मुझे लग रहा निज अस्तित्व-वितान, सभी ओर से जुट आयी है असफलताएँ आज कहाँ गया वह सृजन परिवग? कहा नवल निर्माण ? अपना, अथवा अन्य जनो का हो न सवा उत्यान, निपट अहेतुक रहा समचा जीवन कर्म-विधान, गुछ अपना, युर निखिल राष्ट्र का, ऐसा धूमा चक्र, पिन आ सका विहमता, मेरे नभ में रजत बिहान । स्मार्य, पराथ, रहे हैं दो ही अब तक अप्राप्त, और इघर होने को आया मम दिनमान समाप्त, बटता जाता है असफलता का यह अन्ध कार, क्यो न फटे हिय, जन रह जाये अवाप्तव्य अनवाप्त 7 हम पिपायी जनम के