पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१२९

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फर्म · अकर्म - विकर्म - विधाता, फलदाता बडे खरे राब के हो, राब में हो, फिर भी रहते सब से सदा परे, सब कहते है जगत् - सून के चालक मायावी सुनता हूँ तुम प्रकृति-वधू के चिर सुहाग के बुकुम हो। अहकार, मन, बुद्धि, चित्त से सत, रज, तम से, रही परे,- अनल, वायु, जल, भूमि, गगन के स्वामी त्रिगुणातीत अरे,- जटिल अष्टधा प्रकृति-नियति से भिन्न तुम्हे राव कहते हैं, यो तद्गत मन से ये कविगण तुमको भजते रहते तुम्ही बता दो तो तुम पया हो? सब जन कहते है तुम हो । सुनता हूँ तृम मायापत्ति हो प्रकृति-भाल के गुकुम हो। सके। बुद्धि गम्य तुम नहीं, तुम्हे फिर कैसे पोई जान कैसे भौतिकता मय पुतला यह तुमको पहचान सके? 106 इंग विपशयी जनम के