पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लिपटा है अस्तित्व तुम्हारा शकाओ अचल छदा तुम्हारी पहा दिखाई देतो नियति-हमाचल में ? फिर भी सर गुरुजन कहते हैं तुग हो, तुम हो, हां, तुम हो। सृनता हूँ तुम प्रवृति - वधू के चिर सुहाग के कुकुम हो । कैसे जानें । यी कर जानें? क्या जानू ? तुम हो कि नहीं? कुछ प्रतीति होती हिय मे यदि तुग दिख जाते कही कही । तर्क, वित्तक, वितण्डाओ में तुम सहसा कब मिलते हो? शत-शत युग की अचल शिला हो तुम सहसा कव हिलके हो? कहते है, अविचल भूधर - से जगदर बल तुम हो सुनता हूँ, तुम प्रकृति - नटी के चिर सुहाग के युसुम हो। अटल ? तुम हो, या कि नहीं यह निय करना तर यह है भूल - गुरैया, मागम Y दा हम विषपायी जनम