पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१३२

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जरा, अहो तपोधन । अपने तप का लो परिणाम देखो तो क्या प्रया रंग लायी विद्या अपरा और परा इस पकिल चल की किलकिल मे, कहते है, तुम हो तुम हो, सुनता हूँ तुम प्रकृति-वधू के चिर सुहाग के फुतुम हो। अही सच्चिदानन्द । टोभ यह क्यो छाया है इस जग में? अही सत्यसकरप असत् पह फैल रहा क्यो जग-मग में? रग-रग में गयो असत, अचिन्तन, निरानन्द की है पीडा दिखा रही पयो पाप-वासना, को क्रीडा है यह जटिल दुरुह असगति, इसी जड मे क्या तुम हो' धया तुम ही ठगिनी माया के चिर सुहाग के युकुम हो' अपनो कटुत्ता पतन-भाव क्यों प्रकृति-नटी की नाता का भाभरण हमा 7 बोलो ती काम-वासना मा जागरण हुआ? हम विषपापा जना पची राहता