पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१३३

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जगी अकुलाती। सुभग तुम्हारे विश्व - दीप में पाप-याती। बोलो, हिय - मुद्धस्थल मे क्यो खडी सदिच्छा यह अनाथिनी पुण्य - भावना नया इसके स्वामी तुम हो क्या इस सतत विरहिणी के तुम चिर सुहाग के कुकुम हो । नखरा 09 sto ? पाप - पुण्य का समर - तुम्हारा निराला क्या ही अदा - कही अँघियाला और कही उजियाला है। क्या सदसत् का चिर सघर्षण रुचिर तुम्हारी लीला अहो तुम्हारी यह लीला तो कुटिला है, विरोधाभासो मे भी श्या केवल तुम ही तुम हो क्या सचमुच तुम प्रकृति - वधू के चिर सुहाग के कुकुम हो' दुशीला SOUS सकल ? नहीं। फैसे कहूँ कि तुम हो'-हिम में होती नेक प्रतीति नौति - निपुण के तपोराज में होती सदा अनीति कही। हम विषपाया जनमक १०