पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१३८

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अधक्ष, तब गति यह यह काम-राग, यह विधि-नियेध, है तब लोला । अहो सत्य-शिव-मुन्दर विपर रही चिन्तन शोला, रजत बालुका के कण-कण में सभी और, तुम ही तुम हो प्रकृति वटी के मस्तक के चिर सुहाग के कुकुम हो । 10 1 जीव-जगत् की यह अनन्तता- क्रीडा तुम्हारी जल थल - वायू - गगनचारी सब तब आतप - विनमारी है। अहो हुताशन-पुज तुम्हारा इक स्फुलिंग ब्रह्माण्ड धमा तुम्ही मृत्तिका, कुम्भकार तुम, भाण्ड अलंग-थलग नग, अपलक टक तुम अलक्ष झलम-शाकी तुम हो, समझा हूँ, तुम प्रकृति-वध के चिर सुहाग के कुकुम हो। विश्व तुम्हाग बनाः किन्तु हृदय विश्वारा गून्य है- क्या ही अजन तमाशा है, अन्तस्तल मे उलझ रही यह आशा और निराशा हम विषपायो जनमक १११