पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१७१

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मै प्रकृति-विजय करने निकाला, ठोकर सायी, गिर पडा, उठा, फिर बढ़ा और मेरे श्रम में भौतिक उन्नति का साज जुटा, भूमण्डल हुआ नमण्डल मम मैंने जल-थल को नाप लिया, मेरी आकाक्षाने जग को वरदान दिया, अभिशाप दिया, हूँ वना आज मैं जग-विजयो, आकाश-जयो, भूतल-विजयी, में देश-जयी, मैं काल-जयी, मैं वायु-जयी, जल थल विजयी । तब से अब तक मैंने कितने सामाज्य वनाये, ढेर किये, मैने कितने ये सोधे-उलटे फेर किये। है क्या गणना, मानव को दाम बनाकर मे जगती में शाहगाह वना, फिर प्रलयकर विद्रोही बन मैं मनुज-मोक्ष की चाह बना। हिय तडप उठा, बन गया पुज मैं तीब विरोधाभासो का, मेरा आगन बन गया गच नित नूतन ताण्डव रासो का, १५६ हम विपपायी शनमये .