पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१७२

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चाहे में भाज नामरिक हूँ या हूँ अनागरिक बनवासी, तब भी तो मैं अतृप्त ही हूँ, प्यासा हूँ, मैं हूँ अभिलापी, मैं हन्द्वो का अभिव्यजन हूँ, पुजीभृत द्विधा-गति हूँ, में प्रतिमा-भजनकारी हूँ, में भक्तिमयी नववा रति हूँ, में विद्या और अविद्या हूँ, मे श्रेय प्रेप सम्मिश्रण हूँ, है शाति तरणिजा-धारा मैं सकर्षण -सभपण-रण मेरी मुसमै सनेह का सोमव है, मुझमें विकार की परछाई, आखे है जागरूक मेरी आखे हैं अलसायी, उनमे लाली मादकता की, उनमे चिरागृति के जल कण, उनमे प्रमाद को निगति है, उनमे मनुतापो की उलझन, मेरे हिय में है प्यार भरा, अभिसार भरा, मनुहार भरी, रति भरो, दरम-लालमा भरी औ' विकट विरति की रार भरी, ! हम पियपायी जनम के 545