पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१७३

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मे सतत सनातन अन्वेषक, मैं शाश्वत टोह-निरत प्राणी, हूँ सपिंण - साधना - लीन, में यजयुक्त, चिर बलिदानी, अपने लम्बे यात्रा-पथ में- थककर में बैठा हूँ न कभी, चलता ही जाता हूँ प्रतिपल, है यदपि शिथिल मम अग सभी, मेरे मग में धुंधलापन है, धूमिल है मेरी दृष्टि रच, मेरे मस्तक से धमकण को होती रहती है वृष्टि रच। है लक्ष्य अलख, अस्पष्ट, किन्तु मेरे यि बीच विराम नही, अन्वेपण के अतिरिक्त मुझे कुछ और यहाँ पर काम नहीं जिराको हूँ हूँ वह क्या है, इसका युछ है आभास मुझे, अपने पिय की है दरस प्यास ऐसी कि युझाये भो न बुजे, अपने मग में मैं चलता ही जाता हूँ धीर चरण धर-घर, हैं सहसान्दिया बीत चुकी, चीतेंगे अगणित मवतर। 11८ हम विषादी जनमक है