पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१७४

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मम अवस्थान का टोर दूर, मेरे पय था विस्तार वडा, मेरी प्रणोदना नित नूतन, मेरा उत्ताक अभिनार बढा । अति दूर-दूर के बहुरंगी चिर - रागी है मेरे सपने निश्चम अवगुण्ठन के भीतर छिप बठे है साजन अपने, यूंघट को तनिक उठाने को कितने मुगसे में इच्छुका हूँ, अपनापन सो देने को मैं देखो तो कितना उत्सुक हूँ। ये ललित भावनाएं मेरी, वल साती हुई तरंग ये क्षण-क्षण रूपर पो चलती-सी बहुरम करपना चगे ये- जय मेरे लघु अतस्तल में क्रम क्रम से आविभूत हुई, तब मेरे नयनो के सम्मुख इक नयी सृष्टि सम्भूत हुई। मैने जल थल में, अम्बर में, देरी है अगणित चित्र कई, इन भावो ने दिखलायी है ये कई सृष्टिया नयो - नयी । हम विषपापी अमम क १४६