पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१७५

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मद,काम, क्रोध, भय, लोभ, मोह यह मत्सर, घृणा और करणा- वात्सत्य, शान्ति, चिर नेह, लगन मैत्री, श्रद्धा, लज्जा अरुणा, ये सब मेरे हिय - मन्दिर के चिर-कम्पित-से हैं अधिवासी, मेरे गति - उत्तेजक है ये, फिर भी है मेरी गल फासी, ये मेरे यलो के प्रेरक हैं मेरे दृढतम बन्धन ये, मन - सन्तापी, फिर भी है मम हिय-नन्दन ये । है अपनापन भी तो मुझमे है अहभावना को धारा, रस-राग-समुच्चय व्यक्तित्व बना मेरा सारा, ही से तो गमन के अर्थ बने सोपान रूप मम मनोराग, पर अध पतन पारण बनते ये विकृत रूप में जाग- जाग, अपने ही हाथो रनम - नरक रच लेता हूँ मैं जीवन में, देवासुर ना सग्राम नित्य होता मम हृदय - रणागन में । हम विपाया जनमक १५०