पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कहते हे आनन्द मिटेमा यदि निरखा जीवन गहरे से! कहते है गभीर दान हित, तुम न रुको ठहरे-हरे से ।। कहते है जीवन प्रवाह है, बहे चलो अहनिशि बिन सोचे, कहते हैं मत रको रच भी, यदपि गहन चि तन हिय नोचे। यह शिक्षा अवश्य ही होगी जग - जीवन - करयाणकारिणी, किन्तु सीख यह नहीं बन सकी द्विपद मनुज की क्लेश-हारिणी। कसे मनुज रहे पत्थर - सा, प्रश्नो को का-सासी में नियति स्वय ही शुला रहो है उसको इरा ठण्ही फांसी मे । उसको तो यह जिज्ञासा का मिला शाप-वरदान चिरन्तन, ऊहापोह बिना वह कैसे पाये निज हिय-तोष निरजन ? मत दो यह उपदेश मनुज को कि बह रहे जडवत होकर हो, कि वह परम सुख प्राप्त करेगा अपनी जडता को सौकर ही। हम विषपाया जनमक १९५