पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१९६

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जीवनाव परमावश्यक जहाँ वष्णता भी थोडी-सो,- जहा प्रति चलती रहती है चिन्मयता में मुंह मोडी सी,- एगे इस ब्रह्माण्ड - भरण्ड में, जिसमे ठुसी भरी है जडता,- यदि चेतन - कण मा जाये तो, मन में है यह भाव उमडता, कि यह तना जगवाल में तिरी व्यथ, अप्रागगिया है। माना प्रति बह रहो इससे तुझे, चेतने, विक है। विक है ।। आज यही नि सार - भावना उमड रही है अन्तरतर में, आज यही लहरे उठती है प्रश्न - मथित मम मानस रार में, पर कोई कहता है चुपके 'किन्तु और मे जग जाता हूँ, अपनी इति निश्चितसा पर मैं फिर विचारने लग जाता हूँ, क्या यह चतन निरा मय है? क्मा मानब आया है यो हरी? ये विचार क्या बना नर को और विकट नर - द्रोही? हम रिपपाया पागम के १७१