पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१९७

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मै इस मानव को पो को ? मै क्यो धिक्कारें जोवन को? मानव को उपमानव-सा लस, में क्यो माहें अपने मन को? मानव ही ने पहनामी है प्रष्टी - नटी को नूतन साडी। मानव ही उसके मग खेला, ऐमा मानव कुशल' खिलाडी । मानव ही उसयो दुरहतम अन्तस्तल में पैठा अचलित, मानव ही ने उसे दिया है नियमा का पाटम्बर सुललिता परिणीता, चेतन बिन जो निपट अब थी, उसको हुए अनेत्री लोचन, चेतन सग हुआ गठ - बन्धन, माथे जीवन - कुकुम - रोचन हुई वुमारी जब भागा दूर द्विधा वा धनतम । उन दोनों में सह - मन्थन का मानव निक्ला फल सर्वोत्तम। लख मानव को यह अपूर्णता गयो विराग मेरे हिस जागे ? उसकी गति - इति नही हुई है, यह तो और बडेगा भागे। ७२ हम दिएपाया जनम,