पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२०५

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पूण हुई मानव सापक की तिमिर-विजय-साधना भोति हर, जन का निशा-विजय यात्रा-पथ हुभा नमत्यात ओ' प्रदात्ततर । भय भागा, सन्देह मिट गया, पय में चमकी ज्योति अमाहर, धक् धक् धधक उठी ज्वालाएँ। हर-हर हहर उठे वैश्वानर । तब से अब तका पार कर चुका यह मानव इतने मन्वन्तर, अवगुण्ठन-आवरण प्रकृति के हरण किये इसने अति श्रमकर वैश्वानर को अपने घदा घर इसने खोजे तत्त्व प्रवृत्ति के बड़ी दूर लौ पैठ चुका यह गहन गम में इस संसृति के पर न अभी तक बुझ पायी है इसकी शाश्वत टोह-पिपासा जितना ही महरा यह पैठा, उतनी बडी और'नी भाशा। अरे, तृप्ति तो है गति वाधक, तो फिर प्यास जगे तो जागे। सब व्यापिनी प्यास छोडकर, मानव, कहो, किधर को भागे । केद्रीय कारागार, बरेलो २८ सितम्बर १९४३ १८० हम विषपायी जनमक