पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२०६

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रा, अरेटन नगरानिय नवीन शि. धरती के पूत तुम पृथिवी के सुवन, अरे तुम ओ मृत्तिका-प्रसूत निरे, तुम खेतो खलिहानो के सुत, तुम धरती के पूत निरे, घास और कड़वी-सँग शैशव-काल विताने थाले, ओ, तुम हो मक्का, ज्वार, वनो के सग सग सम्भूत निरे । ओ ग्रामीण आन पहुँने हो, आज ग्राम को छाया में फिर भी नागरता का छिलका लिपट रहा है काया मे । रंगे स्यार - से तुम जंचते हो इस आडम्बर - होन गृहे, चनो प्रकृत नर, रहो न हठ बार निमता की माया में। यही चरम दारिद्रय, दैन्य मै जीवन उगा और फूल, यही परिस्थितिया घिर आयी, दुप्पमूला अति प्रतिकूला, यही हुआ कुछ कुछ विकसित निन मानम दिमण्टल सारा, ओ नगर देहातो, तुमने नहीं दटुन सीवा, मृला । या बीते शैदाय के सपने, हिल-मा-मा स्मृतिय रही, वीती है कौमाय - बाल की सब डिश अवशेष यही, यौवन का आगमन हुआ है टन्ही दूमी की छाया मे, माज कहाँ है वै नत्र पाते? रहा न उन अंग कहीं। आज साझ से गोत्र हैग, चिर परिचिता पहाडी ये, सूब चटे तुन गिन्न - पडने बाटी निग स्याही उखडी सौन, दम्पति को, वा थे, नाम, इन दिपायी इन